श्री हनुमंत लाल जी का प्राकट्य महोत्सव
Jai Hanuman Ji |
आज श्री हनुमंत लाल जी के प्राकट्य महोत्सव की सभी को कोटि-कोटि बधाई !!
!! श्री हनुमान जन्मोत्सव विशेष !!
!! पवन पुत्र हनुमान जी के जन्म की कहानी !!
ज्योतिषीयों की सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 06:03 बजे हुआ था।
!! हनुमान जी की माता अंजनि के पूर्व जन्म की कहानी !!
कहते हैं कि माता अंजनि पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थीं । बालपन में वो अत्यंत सुंदर और स्वभाव से चंचल थी एक बार अपनी चंचलता में ही उन्होंने तपस्या करते एक तेजस्वी ऋषि के साथ अभद्रता कर दी थी ।
गुस्से में आकर ऋषि ने पुंजिकस्थला को श्राप दे दिया कि जा तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा, ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला ऋषि से क्षमा याचना मांगने लगी, तब ऋषि ने कहा कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा ।
तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा, अंजनि को वीर पुत्र का आशीर्वाद मिला ।
!! श्री हनुमानजी की बाल्यावस्था !!
ऋषि के श्राप से त्रेता युग मे अंजना मे नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा इंद्र जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, स्वर्ग में स्थित इंद्र के दरबार (महल) में हजारों अप्सरा (सेविकाएं) थीं, जिनमें से एक थीं अंजना (अप्सरा पुंजिकस्थला) अंजना की सेवा से प्रसन्न होकर इंद्र ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा, अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें । इंद्र ने उनसे कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें ।
अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की, अंजना ने कहा बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए, बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे ।
मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी । मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा । अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा कि अगर इंद्र देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी । इंद्र देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी । शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी ।
इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर चली आईं और उन्हें नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा । केसरी से विवाह उस शाप का प्रभाव शिव के अन्श को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था । और एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं । जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं, जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया । अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं । अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था ।
अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं । अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया ।
केसरी एक शक्तिशाली वानर थे जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था । उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था । तभी से उनका नाम केसरी पड गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह । उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है ।
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!! पंपा सरोवर !!
अंजना और मतंग ऋषि - पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थे । अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहाँ जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी ।
!! अंजना को पवन देव का वरदान !!
मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, जो शबरी के गुरु थे । अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने "शुचिस्नान" करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए । तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उस समय पवन देव ने उसके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा ।
!! अंजना को भगवान शिव का वरदान !!
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास, अपने आराध्य शिव की तपस्या में मग्न थीं । शिव की आराधना कर रही थीं तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें ।
(कर्नाटक राज्य के दो जिले कोप्पल और बेल्लारी में रामायण काल का प्रसिद्ध किष्किंधा)
"तथास्तु" कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए । इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर "पुत्र कामेष्टि यज्ञ" के साथ यज्ञ कर रहे थे ।
यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र "कटोरी" दिया और कहा "ऋषिवर ! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो । राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी । जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया । अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया ।
हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना के पुत्र के रूप मे, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ।
!! अन्य कथा अनुसार हनुमान अवतार !!
सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया । तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया । तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया । किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक कथा जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई ।
श्री हनुमान शिव अवतार है ।
शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग ।
एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया । किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया । वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया । उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया । भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया ।
दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया । इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा । तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया । जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा । तब अचंभित और दुखी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की ।
जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना । जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना ।
!! हनुमान जी की प्रसिद्धि की कथा !!
अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है "अंजना द्वारा उत्पन्न"। माता श्री अंजनी और कपिराज श्री केसरी हनुमानजी को अतिशय प्रेम करते थे ।
श्री हनुमानजी को सुलाकर वो फल-फूल लेने गये थे इसी समय बाल हनुमान भूख एवं अपनी माता की अनुपस्थिति में भूख के कारण आक्रन्द करने लगे । इसी दौरान उनकी नजर क्षितिज पर पड़ी । सूर्योदय हो रहा था । बाल हनुमान को लगा की यह कोई लाल फल है । तेज और पराक्रम के लिए कोई अवस्था नहीं होती ।
श्री हनुमान जी के रुप में माताश्री अंजनी के गर्भ से प्रत्यक्ष शिवशंकर अपने ग्यारहवें रुद्र में लीला कर रहे थे और श्री पवनदेव ने उनके उड़ने की शक्ति भी प्रदान की थी । जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे । उस लाल फल को लेने के लिए हनुमानजी वायुवेग से आकाश में उड़ने लगे । उनको देखकर देव, दानव सभी विस्मयतापूर्वक कहने लगे कि बाल्यावस्था में एसे पराक्रम दिखाने वाला यौवनकाल में क्या नहीं करेगा । उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया । जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था । हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया । उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की - देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे । आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है ।
राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े । राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे । राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई । हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया । उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दी । जिससे संसार का कोई भी प्राणी साँस न ले सके और सब पीड़ा से तड़पने लगे । तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये । ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये । वे मूर्छत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे । जब ब्रह्माजी ने उन्हें सचेत किया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की ।
तभी श्री ब्रह्माजी ने श्री हनुमानजी को वरदान दिया कि इस बालक को कभी ब्रह्मशाप नहीं लगेगा, कभी भी उनका एक भी अंग शस्तर नहीं होगा, ब्रह्माजी ने अन्य देवताओं से भी कहा कि इस बालक को आप सभी वरदान दें तब देवराज इंन्द्रदेव ने हनुमानजी के गले में कमल की माला पहनाते हुए कहा की मेरे वज्रप्रहार के कारण इस बालक की हनु (दाढ़ी) टूट गई है इसीलिए इन कपिश्रेष्ठ का नाम आज से हनुमान रहेगा और मेरा वज्र भी इस बालक को नुकसान न पहुंचा सके ऐसा वज्र से कठोर होगा ।
श्री सूर्यदेव ने भी कहा कि इस बालक को में अपना तेज प्रदान करता हूं और मैं इसको शस्त्र-समर्थ मर्मज्ञ बनाता हुं ।
!! हनुमानजी के कुछ नाम एवं उनका अर्थ !!
हनुमानजी को मारुति नन्दन, बजरंगबली इत्यादि नामों से भी जानते हैं । मरुत शब्द से ही मारुति शब्द की उत्पत्ति हुई है । महाभारत में हनुमानजी का उल्लेख मारुतात्मज के नाम से किया गया है । हनुमानजी का अन्य एक नाम है - बजरंगबली । बजरंगबली यह शब्द व्रजांगबली के अपभ्रंश से बना है । जिनमें वज्र के समान कठोर अस्त्र का सामना करने की शक्ति है, वे व्रजांगबली है । जिस प्रकार लक्ष्मण से लखन, कृष्ण से किशन ऐसे सरल नाम लोगों ने अपभ्रंश कर उपयोग में लाए, उसी प्रकार व्रजांगबली का अपभ्रंश बजरंगबली हो गया ।
!! हनुमान जी की विशेषताएं !!
अनेक संतों ने समाज में हनुमान जी की उपासना को प्रचलित किया है । ऐसे हनुमान जी के संदर्भ में समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं, "हनुमानजी हमारे देवता हैं" । हनुमानजी शक्ति, युक्ति एवं भक्तिका प्रतीक हैं । इसलिए समर्थ रामदासस्वामी ने हनुमानजी की उपासना की प्रथा आरंभ की । महाराष्ट्र में उनके द्वारा स्थापित ग्यारह मारुति प्रसिद्ध हैं । साथ ही संत तुलसीदास ने उत्तर भारत में मारुति के अनेक मंदिर स्थापित किए तथा उनकी उपासना दृढ की । दक्षिण भारत में मध्वाचार्य को मारुति का अवतार माना जाता है । इनके साथ ही अन्य कई संतों ने अपनी विविध रचनाओं द्वारा समाजके समक्ष मारुति का आदर्श रखा है ।
1. शक्तिमानता
हनुमानजी सर्वशक्तिमान देवता हैं । जन्म लेते ही हनुमानजी ने सूर्य को निगलने के लिए उडान भरी । इससे यह स्पष्ट होता है कि, वायुपुत्र अर्थात वायुतत्त्वसे उत्पन्न हनुमानजी, सूर्यपर अर्थात तेजतत्त्वपर विजय प्राप्त करनेमें सक्षम थे । पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश तत्त्वों में से तेज तत्त्व की तुलना में वायुतत्त्व अधिक सूक्ष्म है अर्थात अधिक शक्तिमान है । सर्व देवताओंमें केवल हनुमानजी को ही अनिष्ट शक्तियां कष्ट नहीं दे सकतीं । लंका में लाखों राक्षस थे, तब भी वे हनुमानजी का कुछ नहीं बिगाड पाएं । इससे हम हनुमानजी की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं ।
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2. भूतों के स्वामी
हनुमानजी भूतों के स्वामी माने जाते हैं । किसी को भूत बाधा हो, तो उस व्यक्ति को हनुमानजी के मंदिर ले जाते हैं । साथ ही हनुमानजी से संबंधित स्तोत्र जैसे हनुमत्कवच, भीमरूपी स्तोत्र अथवा हनुमान चालीसा का पाठ करने के लिए कहते हैं ।
3. भक्ति
साधना में जिज्ञासु, मुमुक्षु, साधक, शिष्य एवं भक्त ऐसे उन्नति के चरण होते हैं । इसमें भक्त यह अंतिम चरण है । भक्त अर्थात वह जो भगवान से विभक्त नहीं है । हनुमानजी भगवान श्रीराम से पूर्णतया एकरूप हैं । जब भी नवविधा भक्ति में से दास्य भक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण देना होता है, तब हनुमानजी का उदाहरण दिया जाता है । वे अपने प्रभु राम के लिए प्राण अर्पण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । प्रभु श्रीराम की सेवा की तुलना में उन्हें सब कुछ कौडी के मोल लगता है । हनुमान सेवक एवं सैनिक का एक सुंदर सम्मिश्रण हैं । स्वयं सर्वशक्तिमान होते हुए भी वे, अपने-आपको श्रीरामजी का दास कहलवाते थे । उनकी भावना थी कि उनकी शक्ति भी श्रीरामजी की ही शक्ति है । मान अर्थात शक्ति एवं भक्तिका संगम ।
4. मनोविज्ञानमें निपुण एवं राजनीतिमें कुशल
अनेक प्रसंगों में सुग्रीव इत्यादि वानर ही नहीं, वरन् राम भी हनुमानजी से परामर्श करते थे । लंका में प्रथम ही भेंट में हनुमानजी ने सीता के मन में अपने प्रति विश्वास निर्माण किया । इन प्रसंगों से हनुमानजी की बुद्धिमानता एवं मनोविज्ञान में निपुणता स्पष्ट होती है । लंकादहन कर हनुमानजी ने रावण की प्रजा में रावण के सामर्थ्य के प्रति अविश्वास उत्पन्न किया । इस बात से उनकी राजनीति-कुशलता स्पष्ट होती है ।
5. जितेंद्रिय
सीता को ढूंढने जब हनुमानजी रावण के अंतःपुर में गए, तो उस समय की उनकी मनः स्थिति थी, उनके उच्च चरित्र का सूचक है । इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं, "सर्व रावण पत्नियों को निःशंक लेटे हुए मैंने देखा" "परंतु उन्हें देखने से मेरे मन में विकार उत्पन्न नहीं हुआ" ।
वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड 11.42-43
इंद्रियजीत होने के कारण हनुमानजी रावणपुत्र इंद्रजीत को भी पराजित कर सके । तभी से इंद्रियों पर विजय पाने हेतु हनुमानजी की उपासना बतायी गई ।
6. भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाले
हनुमानजी को इच्छा पूर्ण करने वाले देवता मानते हैं, इसलिए व्रत रखने वाले अनेक स्त्री-पुरुष हनुमानजी की मूर्ति की श्रद्धापूर्वक निर्धारित परिक्रमा करते हैं । कई लोगों को आश्चर्य होता है कि, जब किसी कन्या का विवाह निश्चित न हो रहा हो, तो उसे ब्रह्मचारी हनुमानजी की उपासना करने के लिए कहा जाता है । वास्तव में अत्युच्च स्तर के देवताओं में "ब्रह्मचारी" या "विवाहित" जैसा कोई भेद नहीं होता । ऐसा अंतर मानव-निर्मित है । मनोविज्ञान के आधार पर कुछ लोगों की यह गलत धारणा होती है कि, सुंदर, बलवान पुरुष से विवाह की कामना से कन्याएं हनुमानजी की उपासना करती हैं । परंतु वास्तविक कारण कुछ इस प्रकार है । लगभग 30 प्रतिशत व्यक्तियों का विवाह भूतबाधा, जादू-टोना इत्यादि अनिष्ट शक्तियों के प्रभावके कारण नहीं हो पाता । हनुमानजी की उपासना करने से ये कष्ट दूर हो जाते हैं एवं उनका विवाह संभव हो जाता है।
7. हनुमान जन्मोत्सव कैसे मनाया जाता है ?
हनुमान जयंती का उत्सव संपूर्ण भारत में विविध स्थानों पर धूमधाम से मनाया जाता है । इस दिन प्रात: 4 बजे से ही भक्तजन स्नान कर हनुमान जी के देवालयों में दर्शन के लिए आने लगते हैं । प्रात: 4 बजे से देवालयों में पूजा विधि आरंभ होती हैं । हनुमानजी की मूर्ति को पंचामृत स्नान करवा कर उनका विधिवत पूजन किया जाता है । सुबह 6 बजे तक अर्थात हनुमान जन्म के समय तक हनुमान जन्म की कथा, भजन, कीर्तन आदि का आयोजन किया जाता है । हनुमानजी की मूर्ति को हिंडोले में रख हिंडोला गीत गाया जाता है । हनुमानजी की मूर्ति हाथ में लेकर देवालय की परिक्रमा करते हैं । हनुमान जयंती के उपलक्ष्य में कुछ जगह यज्ञ का आयोजन भी करते हैं । तत्पश्चात हनुमानजी की आरती उतारी जाती है । आरती के उपरांत कुछ स्थानों पर सौंठ अर्थात सूखे अदरक का चूर्ण एवं पीसी हुई चीनी तथा सूखे नारियल का चूरा मिलाकर उस मिश्रणको या कुछ स्थानों पर छुहारा, बादाम, काजू, सूखा अंगूर एवं मिश्री, इस पंचखाद्य को प्रसाद के रूप में बांटते हैं । कुछ स्थानों पर पोहे तथा चने की भीगी हुई दाल में दही, शक्कर, मिर्ची के टुकडे, निम्ब का अचार मिलाकर गोपाल काला बनाकर प्रसाद के रूप में बाटते है । कुछ जगह महाप्रसाद का आयोजन किया जाता है ।
Jai Shri Ram |
!! श्री हनुमान जन्मोत्सव !!
जो "नाम, रुप, यश" इन तीनो को छोड़ता है भगवान उसे कभी नहीं छोड़ते सदा उसे हनुमान जी की तरह अपने साथ व पास ही रखते है ।
1. नाम छोड़ा - हनुमान जी ने अपना कोई नाम नहीं रखा । हनुमान जी के जितने भी नाम इस संसार में प्रसिद्ध है सभी उनके कार्यों से अलग अलग नाम हुए है । किसी ने पूछा - आपने अपना कोई नाम क्यों नहीं रखा तो हनुमान जी बोले - नाम तो एक ही सुन्दर है श्रीराम ।
विभीषण जी के पास जब हनुमान जी गए तो विभीषण जी बोले - आपने भगवान की इतनी सुन्दर कथा सुनाई आप अपना नाम तो बताईये ।
हनुमान जी बोले - मेरे नाम की तो बड़ी महिमा है ।
प्रातः लेई जो नाम हमारा;
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।
अर्थात प्रात:काल हमारा नाम जो भी नाम लेता है उसे उस दिन आहार तक नहीं मिलता, अर्थात् भूखा रहता है ।
2. रूप छोड़ा - हनुमान जी बंदर का रूप लेकर आये । हमें किसी का मजाक उड़ाना होता है या किसी का मजाक उड़ाते है तो हम कहते है कैसा बंदर जैसा मुख है कैसे बंदर जैसे दाँत दिखा रहा है ।
हनुमान जी से किसी ने पूछा - आप अपना रूप बिगाड़कर क्यों आये तो हनुमान जी बोले यदि मै रूपवान हो गया तो भगवान पीछे रह जायेगे ।
इस पर भगवान बोले - चिंता मत करो हनुमान, मेरे नाम से ज्यादा तुम्हारा नाम होगा और ऐसा हुआ भी ।
आज दुनियां में राम जी के मंदिर से ज्यादा हनुमान जी के मंदिर है । मेरे दरबार में पहले तुम्हारा दर्शन होगा "राम द्वारे तुम रखवाले" ।
3. यश छोड़ा - हम थोड़ा सा भी छोटा बड़ा और कोई अच्छा काम करते है तो चाहते है, उस कार्य का हमें श्रेय मिले हमारी समाज में प्रशंषा हो, पेपर में हमारी फोटो छपे, नाम छपे पर हनुमान जी ने कितने बड़े-बड़े काम किये पर यश स्वयं कभी नहीं लिया ।
एक बार भगवान वानरों के बीच में बैठे थे, सोचने लगे हनुमान तो अपने मुख से स्वयं कभी कहेगा नहीं इसलिए हनुमान जी की बडाई करते हुए भगवान बोले - हनुमान तुमने इतना बड़ा सागर लांघा जिसे कोई नहीं लांघ सका ।
हनुमान जी बोले - प्रभु इसमें मेरी क्या बिसात ।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही ।
आपके नाम की मुंदरी ने सागर पार लगाया ।
भगवान बोले - अच्छा हनुमान मेरी नाम की मुंदरी ने उस पार लगाया फिर जब तुम लौटे तब तो मुंदरी जानकी को दे आये थे फिर लौटते समय में तो मुंदरी नहीं थी फिर किसने पार लगाया ?
इस पर हनुमान जी बोले - प्रभु आपकी कृपा ने "मुंदरी" ने उस पार किया और माता सीता की कृपा ने "चूड़ामणि" ने सागर के इस पार किया ।
भगवान ने मुस्कराते हुए पूछा फिर लंका कैसे जली ?
हनुमान जी बोले - लंका को जलाया आपके प्रताप ने, लंका को जलाया रावण के पाप ने, लंका को जलाया माँ जानकी के श्राप ने ।
भगवान ने मुस्कराते हुए घोषणा की - हे हनुमान तुमने यश छोड़ा है इसलिए न जाने तुम्हारा यश कौन-कौन गायेगा ।
सहस्र बदन तुम्हारो यश गावे ।
सारा जगत तुम्हारा यश गायेगा ।
कहना यह है साधक बन्धु जनो । जो इन तीनो को छोडता है या सर्वथा इन सबका त्याग कर देता है तो भगवान फिर उसे कभी नहीं छोडते सदा अपने साथ व पास रखते है ।
!! श्री तुलसीदास जी स्तुति !!
Jai Hanuman Ji |
माता रामो मत्पिता रामचंद्र:।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र:।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालु:।
नान्य्ं जाने नैव जाने न जाने ॥
श्री तुलसीदास जी ने श्री हनुमान लला जी की इस प्रकार स्तुति की ।
जयति मर्कटाधीश, मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद-मंगलालय, कपाली ।
मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुल, घोर संसार-निशि किरणमाली ।।
हे हनुमान जी ! तुम्हारी जय हो ! तुम वानरों के राजा, सिंह के सामान पराक्रमी, देवताओं में श्रेष्ठ, आनंद और कल्याण के स्थान तथा कपालधारी शिवजी के अवतार हो । मोह, मद, क्रोध, काम आदि दुष्टों से व्याप्त घोर संसाररुपी अंधकारमयी रात्री के नाश करने वाले तुम साक्षात सूर्या हो ।
जयति लसदंजनादितिज, कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव, जगदार्तीहर्ता ।
लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हंस हनुमान कल्याणकर्ता ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा जन्म अंजनी रुपी अदिति (देवमाता) और वानरों में सिंह के सामान केसरी रुपी कश्यप से हुआ है । तुम जगत के कष्टों को हरने वाले हो तथा लोक और लोकपाल रुपी चकवा-चकवी और कमलों का शोक नाश करने वाले साक्षात कल्याण-मूर्ति सूर्या हो ।
जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह,वज्रसार सर्वांग भुजदंड भारी ।
कुलिषनख, दशनवर लसत ,बालधिबृहद, वैरी-शस्त्रास्तधर कुधरधारी ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा शरीर बड़ा विशाल और भयंकर है, प्रत्येक अंग वज्र के सामान है, भुजदंड बड़े भारी हैं तथा वज्र के सामान नख और सुन्दर दांत शोभित हो रहे हैं । तुम्हारी पूँछ बड़ी लम्बी है, शत्रुओं के संहार के लिए तुम अनेक प्रकार के अस्त्र, शस्त्र और पर्वतों को लिए रहते हो ।
जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन, रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी ।
कीष-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन, दालान कानन तरुण तेजरासी ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम श्रीसीताजी के शोक-सन्ताप का नाश करने वाले और श्रीराम-लक्ष्मण के आनंदरुपी कमलों को प्रफुल्लित करने वाले हो । वानर-स्वाभाव से खेल में ही पूँछ से लंका जला देने वाले, अशोक-वन को उजाड़ने वाले, तरुण तेज के पुंज मध्यानकाल के सूर्यरूप हो ।
जयति पातोधि-पाषाण-जलयांकर, यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता ।
दुष्ट रावण-कुम्भकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित, कर्म-परिपाक-दाता ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम समुन्द्र पर पत्थर का पुल बाँधने वाले, राक्षसों के महान आनन्द के नाश करने वाले तथा दुष्ट रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के मर्म - स्थानों को तोड़कर उनके कर्मों का फल देने वाले हो ।
जयति भुवनैकभूषण, विभीषणवरद, विहित कृत राम-संग्राम साका ।
पुष्पकारूड़ सौमित्री-सीता-सहित, भानु-कुलभानु-कीरति-पताका ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम त्रिभुवन के भूषन हो, विभीषण को राम-भक्ति का वर देने वाले हो और रण में श्रीरामजी के साथ बड़े-बड़े काम करने वाले हो । लक्ष्मण जी और सीता जी सहित पुष्पक-विमान पर विराजमान सूर्यकुल के सूर्य श्रीरामजी की कीर्ति-पताका तुम्ही हो ।
जयति पर-यन्त्रमंत्राभिचार-ग्रसन, कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता ।
शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम शत्रुओं द्वारा किये जाने वाले यंत्र-मन्त्र और अभिचार (मोहन उच्चाटन आदि प्रयोगों तथा जादू-टोनों) को ग्रसने वाले तथा गुप्त मारण-प्रयोग और प्राणनाशिनी कृत्या आदि क्रूर देवियों का नाश करने वाले हो । शाकिनी, डाकिनी, पूतना, प्रेत, वेताल, भूत और प्रमथ आदि भयानक जीवों के नियंत्रण-कर्ता शासक हो ।
जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विषद, वेद-वेदांगविद ब्रम्हवादी ।
ज्ञान-विज्ञानं-वैराग्य-भाजन विभो, विमल गुन गनती शुकनारदादि ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम वेदान्त के जानने वाले, नाना प्रकार की विद्याओं में विशारद, चार वेद और छ: वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष) के ज्ञाता तथा शुद्ध ब्रह्म के स्वरुप का निरूपण करने वाले हो । ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य के पात्र हो अर्थात तुम्ही ने इनको अच्छी तरह से जाना है । तुम समर्थ हो । इसी से शुकदेव और नारद आदि देवर्षि सदा तुम्हारी निर्मल गुणावली गाया करते हैं ।
जयति काल-गुन-कर्म-माया-मथन, निश्छलज्ञान,वृत-सत्यरत, धर्मचारी ।
सिद्ध-सुरवृंद-योगीन्द्र-सेवित सदादास तुलसी प्रनत भय-तमारी ।।
तुम्हारी जय हो ! तुम काल (दिन, घडी, पल आदि), त्रिगुण (सत्त्व, राज, तम), कर्म (संचित, प्रारब्ध, क्रियामाण) और माया का नाश करने वाले हो । तुम्हारा ज्ञानरूप व्रत सदा निश्चल है तथा तुम सत्यपरायण और धर्म का आचरण करने वाले हो । सिद्ध, देवगन और योगिराज सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं । हे भाव-भयरुपी अन्धकार का नाश करने वाले सूर्य । यह दास तुलसी तुम्हारी शरण है।
।। श्री हनुमान चालीसा ।।
दोहा :
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
चौपाई :
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
Jai Hanuman Ji |
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा।।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
कांधे मूंज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन।।
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचंद्र के काज संवारे।।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।।
जम कुबेर दिगपाल जहां ते।
कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।।
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना।।
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना।।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै।।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।।
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा।।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै।।
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।।
साधु-संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे।।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
Jai Hanuman Ji |
अस बर दीन जानकी माता।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।।
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै।।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।।
दोहा :
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
!! आरती श्री हनुमानजी की!!
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरिवर कांपे। रोग दोष जाके निकट न झांके॥
अंजनि पुत्र महा बलदाई। सन्तन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुधि लाए॥
लंका सो कोट समुद्र-सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि संजीवन प्राण उबारे॥
पैठि पाताल तोरि जम-कारे। अहिरावण की भुजा उखारे॥
बाएं भुजा असुरदल मारे। दाहिने भुजा संतजन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। जय जय जय हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई॥
जो हनुमानजी की आरती गावे। बसि बैकुण्ठ परम पद पावे॥
लंका विध्वंश किये रघुराई। तुलसीदास स्वामी किर्ती गाई॥
आरती किजे हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जय जय जय श्री मारुति नन्दन महाराज की जय हो ।
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